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न जाने कहाँ बसता है वो

ना जाने बसता कहाँ
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सङको पे चलता कहाँ वह संक्रमण से अनजान है
भय व भूख को साथ लिए वो भी एक इन्सान है
जानता है यह सफ़र शायद हो अंतिम सफ़र
चल रहा, माथे पे गठरी ,बच्चों की अंगुली पकड़
धूप से तपते बच्चे को माँ लेती सीने से जकड़
मुसीबत से बेपरवा,खिलखिला,मासूम नादान है ।
कभी बिस्कुट की ज़िद करता चिल्ला पङता वो
तात की अंगुली छूङा,बेखौफ़ दौङ पङता है वो
खाद्यान्न से भरी ट्रक के आगे,मचलते गिर पङता वो
भूख मिटाने चला,काल का ग्रास बन बैठा वो
थी नहीं जिन्दगी की समझ,कहाँ मौत से अनजान है ।
कोरोना का डर,भूख की लहर,टूटा नियति का कहर
हुए अपनों से दूर,मा के सपने चूर,कितनी नियति है क्रूर
देके खुशी,छीनी अधरों से हंसी,दी क्यू ये खामोशी
ना जाने बसता कहाँ,करते जिसका हम गुणगान हैं
सुमन आर्या
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