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पल दो पल के शायर

हैं बहुत यहाँ एक से बढ़कर एक,
है काबिलों की बस्ती ये जहाँ ,
हैं कितने ही माहिर आये यहाँ
और आकर चले गए न जाने कहाँ,
कोई रहा कहाँ एक वक़्त जीकर यहाँ,
हर किसीको आकर फिर जाना ही पड़ा,
चाहे वो कितना भी माहिर क्यों न रहा!

पल दो पल के शायर
दो शब्द सुनते हैं
और दो शब्द कह जाते हैं
पर उन्हीं चंद शब्दों में
ज़िंदगी के कई मायने दे जाते हैं,
वो किसी पुष्प का निराला रंग हो
या अनछुआ सा कोई रस या गंध हो,
चंद शब्दों में वो कितना कुछ पिड़ो जाते हैं!

© अनुपम मिश्र

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