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प्रज्ञा की वेदना:-

उनकी बगिया की बहार
देखती ही रह गई
कली जो खिली थी
धूप की तपन में
मुरझा गई ……

अंजुमन में कितने मशरूफ थे
तेरी स्मृतियों के अवशेष
बातें बहुत-सी हुईं
रह गए बस वचन शेष …..

गीत गुनगुना रही थी
नवविवाहिता वसंत
स्तब्ध थे खड़े सभी
सुन रहे थे प्रेमग्रंथ……

प्रज्ञा की वेदना के साक्षी हैं
सभी यहाँ
रात्रि की कौमुदी और
प्रभात की सुर्खियाँ……

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