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प्रारब्ध

प्रारब्ध
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सदियों से ठंडी, बुझी, चूल्हे की राख में कुछ सुगबुगाहट है।

राख़ में दबी चिंगारियों से चिंतित हूं मैं!

अपने गीले- सूखे मन की अस्थियों का पिंजर…
दबा आयी थी मैं
उस गिरदाब (दलदल) में…..
वहां कमल उग आए है।

राख में दबी चिंगारियों के भग्नावशेषों से उठता धुंआ जैसे
लोहे के समान
चुम्बक की ओर खिचा चला जा रहा हो..
धुएं को जैसे खीच लिया गया हो फुंकनी से उल्टा ।
बांध लिया हो जैसे किसी अदृश्य पाश में।
हवा में उड़ती स्वर लहरियां, आलिंगन जैसे खीच लिया हो मैंने!
ओढ़ लिया हो जैसे अक्षुष्ण अनुराग का मौन।
जानती हूं …..अंगार पहन लिया है मैंने।
अब जलना ही नियति है मेरी
यह भी जानती हूं
तबले की थाप बिना स्वर लहरी के राग को पूर्णता ना दे पाएगी।

इस राग का अधूरापन ही प्रारब्ध है मेरा।
पिंजरबद्घ अनुराग का उन्माद,
सुलग – सुलग ठंडा हो जाएगा,
शांत हो जाएगा उस दिन…
जिस दिन रुक जाएगी मेरी कलम की अनवरत यात्रा मेरे साथ।
निमिषा सिंघल

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