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प्रेम की गाड़ी

एक से दूसरी, दूसरी से तीसरी पटरी पर पटरी बदलता हूं
क्या कहूं मैं प्रेम की गाड़ी में रोज सफर करता हूं
इन गाड़ियों के डिब्बों से, रोज दिल मेरा मचलता है
कभी नीला, कभी सफेद, कभी सतरंगी जेहन में आता है

प्लेटफार्म पर उतर कर, जब राह मैं अपनी बदलता हूं
सामने से हार्न – गाड़ी का सुन, फिर विचलित हो जाता हूं
कशमकश सी लगी है भीतर, दिल के किसी कोने में
साथ दूं किस – किसका, जीवन के इस क्षणभंगुर में

उम्र भी अब इजाज़त नहीं देती, रोज राह-ए-सफ़र का
आंखें भी अब थक चुकी हैं, गाड़ियों के होते बदलाव का
अब कि गाड़ियां नये स्टेशनों पर, सरपट दौड़ने वाली हैं
क्या करूं प्लेटफार्मों से, वो पुरानी आवाज न आती है |

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