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फिर क्या जीना फिर क्या मरना

rajendrameshram619@gmail.com
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जलने दो हृदय की वेदना,
विचलित मन से कैसे डरना |
हो जीवन संताप दुखों का,
फिर क्या जीना फिर क्या मरना ||
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युद्ध अनघ है मन के भीतर,
परितापों से प्राण पिघलते |
दूर करो असमंजस बादल,
मन पावक में कैसे जलते ||
धार बढा दो पराक्रमी तुम,
कुरुक्षेत्र सा जीवन लड़ना |
हो जीवन संताप दुखो का,
फिर क्या जीना फिर क्या मरना ||
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तुम में ज्वाला सूर्य सरीखी
हेतु धर्म तुम जल सकते हो |
पीर पराई थोड़ी समझो,
कष्ट दूर सब कर सकते हो ||
फिर पुण्य मिले कुछ नही मिले,
दीपक बनकर पथ पर जलना |
हो जीवन संताप दुखो का,
फिर क्या जीना फिर क्या मरना ||
~~~~~00000~~~~~

आनंद स्वतः मिल जाएगा,
हो दूर निराशा की बातें |
अपने दीपक तुम स्वयं बनो,
दूर करो अंधेरी रातें ||
कटु वचनों का बोझा लादे,
शुष्क हँसी फिर कैसे हँसना |
हो जीवन संताप दुखो का,
फिर क्या जीना फिर क्या मरना ||

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रचना-राजेन्द्र मेश्राम “नील”

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