Site icon Saavan

बंद खिड़की

तलबगार है ये बंद खिड़की
उस शख्श के दीदार की
जो वादा करके गया आने का
अब हद्द हो चुकी इंतज़ार की

गुज़रती हैं जब भी हवाएं यहाँ से
दर्द की आहट उठ जाती है
चरमराती कराहती हैं बहुत
ये खिड़की बहुत चिल्लाती है

जाम से चुके कब्जे इसके
झुँझलाते किटकिटाते से
उन यादों के झरोखों से
तेरी कोई हूक सी उठ जाती है

आजा की रंग फीके न हो जाएँ
खुलने को आज भी बेताब ये खिड़की
रोशनी भी गुज़रने नहीं देती
कैसी ज़िद पर अड़ी है ये खिड़की

कब आकर खटखटाओगे
कब फिर सतरंगी सपने सजाओगे
आजाओ की आस में परेशान
तलबगार तेरी ये बंद खिड़की
©अनीता शर्मा
अभिव्यक्ति बस दिल से

Exit mobile version