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बाहर निकल आया

गुजरता रहा उसकी आँखों से हर रात किसी भरम सा मैं,
फिर एक रोज़ खुद ब खुद उसके ख्वाबों से बाहर निकल आया मैं,
छुप कर बैठा रहा मैं एक झूठ की आड़ में बरसों,
फिर एक रोज किसी सच्ची ज़ुबान सा बाहर निकल आया मैं,
ईमारत ए नीव सा दबा बैठा रहा वजूद मेरा,
फिर एक रोज़ किसी मस्ज़िद की अज़ान सा बाहर निकल आया मैं॥
राही (अंजाना)

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