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बैठी है

देखकर जिसको जुड़ जाते हैं हाँथ अक्सर,
आज वही फैला कर दोनों हाँथ बैठी है,
झुकाकर निकलते हैं हम जिसके आगे सर अपना,
आज वही सरेबाजार सर झुकाकर बैठी है,
टूटने नहीं देती है जो कभी नींद हमारी,
आज भूल कर सभी ख्वाब वो नींद उड़ा कर बैठी है,
बचाकर हर नज़र से जो हमे छिपाती रही उम्र भर,
आज सफ़र ऐ सहर से वही नज़र मिलाकर बैठी है॥
राही (अंजाना)

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