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मैं चमकता सा शहर हूं

मैं चमकता-सा शहर हूँ,
न रुकता हूँ, न थकता हूँ,
मेरा कारवां न रुका है,
वो फिर से दौड़ता है,
एक रफ़्तार के बाद।
हादसे तो मेरे भीतर की आम बातें हैं,
मैं खीचता हूँ, सबको अपनी और अनायास,
हिला देता हुं किसी की जड़ को,
मैं खुद मजबूत खड़ा रहता हूँ।
मेरे भीतर के कालेपन को,
कोई देख नहीं पाता।
मेरी ऐसी चमक ही है यारों,
जो हर किसी को, है भाता,
मेरे भीतर की हैवानियत,
कोई जान नहीं पाता,
मैं चमकता-सा शहर हूँ,
कैसे कोई लूट जाता हैं,
कैसे कोई टूट जाता है,
मैं देखता हूँ, मुस्कुराता हूँ,
मुझे आदत है अब इन सबकी,
नयेपन का सब रंग मुझे भाता है।
मैं पालता हूँ, अजनबियों को अपने भीतर,
कभी कोई एक न हो जाए,
शोला भड़कता हूँ,
मैं शहर हूँ।
मैं वाकिफ हूँ, आग कहा जलनी चाहिए,
ख़्वाहिशें लोगो को राख होनी चाहिए,
उनके भीतर का इंसान मर जाना चाहिए,
अपराध होते रहे, सामने ,पर वे अंधे होने चाहिए,
ये नफ़रत ये अंजानापन,
कभी कम ना होना चाहिए,
बीतें हादसे को फिर से दोहराना चाहिए,
आज फिर एक गुनाह मेरे भीतर हुआ,
कल उसे फिर से दोहराना चाहिए,
मैं चमकता-सा शहर हूँ,
तुम्हे मेरे पास आना चाहिए,
मैं आईना हूँ,
तुम्हारे भविष्य का,
जो तुम्हें सब देगा,
जो जरूरत अगर पूरी न हो,
उसे पाने में साथ देगा,
तुम अगर बढ़ना चाहो,
गुनाह के रस्ते पर,
तुम्हारा हाथ थाम लेगा,
तुम मेरे पास आओ,
अपने गांव की मिट्टी छोड़कर,
जो तुम्हें संस्कार देती है,
शर्म देती हैं, उसको भुला देगा,
मेरे पास आओ,
वो सिखाती है, तुम्हें, दुसरो की इज़्ज़त देना,
यहाँ इज़्ज़त नीलाम करने की आज़ादी देगा,
मैं चमकता सा शहर हूँ,
मेरे पास आओ,
जहाँ तुमने कभी आवाज ऊँची भी न की होगी,
बेख़ौफ़ चिल्लाने की आज़ादी देगा,
यहाँ बहरे और गूंगे है सब,
जो तुम्हारे हारने पर,अपनी
जीत की जश्न देगा।।।।।

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