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यह नजर पाप करती रही

साँस से भाप उड़ती रही,
आपको भी दुराशय से देखा
यह नजर पाप करती रही।
मन किसी और पथ पर रमा था
जीभ कर करके दिखावा निरन्तर
नाम का जाप करती रही।
पुष्प सुन्दर खिला जो भी देखा
हो विमोहित उसी की तरफ
तोड़ लेने को आतुर रही।
फिर पतंगा बनी औऱ झुलसी
अपने जालों में अपना ही उलझी
भ्रम में चूक करती रही।
बाहरी आवरण पर खिंची
पर तसल्ली नहीं मिल सकी
इस तरह भूख बढ़ती रही।
यह नजर चूक करती रही।
———– डॉ0 सतीश चंद्र पाण्डेय
(मनोवृतियों पर आधारित प्रयोगात्मक कविता, प्रथम व अंतिम एकपद, और मध्यस्थ त्रिपद काव्य)

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