कुछ इस तरह रिश्ते का मान रह जाए,
तेरी राखी में बंधके मेरी आन रह जाए..
तेरे बाँधे हुए धागे की गाँठ जो छूटे,
मुद्दत्तों बाद भी उसका निशान रह जाए..
रेत के टीले पर बचपन में घर बनाया था,
आज इस उम्र में भी वो मकान रह जाए..
बड़े गिलास में शर्बत के लिए लड़ते थे,
काश वैसा ही आज भी गुमान रह जाए..
दौड़ते दौड़ते साईकिल सिखाई थी तुझको,
गुजरते वक्त को शायद ये ध्यान रह जाए..
तूने बचपन में ली है मुझसे कई दफा रिश्वत,
उन्हीं यादों में बसके मेरी जान रह जाए..
ये सिलसिला कि तू कॉलेज में टॉप कर ले और,
खिंचे बिना जो कभी मेरा कान रह जाए..
मुझे पहले की तरह बात हर बताना तुम,
भावनाओं का ना दिल में उफान रह जाए..
कुछ इस तरह रिश्ते का मान रह जाए,
तेरी राखी में बंधके मेरी आन रह जाए..
– ‘प्रयाग धर्मानी’