ठंडक की आहट से उठ रही एक डर,
कैसे कटेगा ये जाड़ा मिला न कम्बल गर।
सिर पर छत नहीं, तन ढकने को नहीं,
खुला आसमान है, जीवन है सड़क पर।
सिकुड़-सिकुड़ कर रात काटी अब तक,
फटी हुई चादर में सोया तन ढककर।
अब तक मच्छर थे, चूसते थे तन मेरा,
अब नहीं सोने देती शीत मुझे रात भर।
सड़क किनारे सोता दीन सोचे मन में ये,
रात को भी धूप आती ताप लेता घड़ी भर।
— डॉ0 सतीश चंद्र पाण्डेय, चम्पावत।