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रात तू अकेली नहीं

दूर तलक तनहाई का आलम
अकेली बिरह वेदना सहती
ख़ामोशी की गहरी चादर ओढ़े
चुपचाप रहती है रात।
किसको अपनी पीङ सुनाए
कैसे उसको अपना मीत बनाए
जिसके लिए कयी ख्वाब सजाए
उधेड़-बुन में रोती रात।
देखो ये कोयल क्यूं ‌ कूके
तुझसे भी क्या प्रीतम रूठे
तू भी है विरहा ‌की मारी
खुद से ही बातें करती रात।

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