वह पत्थर तोड़ती थी
पर दिल की कोमल थी
अपने सीने से लगाकर
बच्चों को रखती थी
भूँख जब लगती थी उसको
तो बासी रोटियाँ पोटली से
निकाल कर खा लेती थी
पर अपने बच्चों को
छाती का दूध पिलाती थी
अन्न का दाना जब नसीब होता था
तो गाना गाते हुए भोजन बनाती थी
मेरी कविता का जो विषय बनी है आज
वो मेरे गाँव की काकी कहलाती थी…