समर्पण:- जबरदस्ती या प्यार
कोने में दुल्हन बनी मै खड़ी थी,
हाथों में सिंदूर की डिबिया पड़ी थी,
वक्त था मेरे घर से विदा होने की,
छोड़ सब सखियां को जाने की बेला हो चली थी,
ये कैसा शोर था जिसमें खुशियों से ज्यादा डर का मोहल था?
सब अपने छोड़ कर अनजानों से भरा पड़ा ये घर था,
रस्मो के उलझन में ये मेरा मन बड़ा डरा पड़ा था,
जब आई बेला समर्पण की तो मन में एक जीझक था,
ऐसा नहीं कि मुझे किसी और से प्यार था,
बस ये सब को लेकर मेरा मन अभी तैयार नहीं था,
अनजान से इंसान के सामने मेरा मन अभी कहा खुला था,
फिर ये जोर कैसा था सारी ताकत की आजमाइश कैसी थी,
माना समर्पण प्यार की निशानियां होती है पर इसमें जबरदस्ती की गुंजाइश कहा थी?
समर्पण के आड़ में भला ये जबरदस्ती की क्या जरुरत थी,
सूट बूट में तो वह दिखते हीरो पर अंदर से इतने मैले क्यों थे,
सब कहते हैं कि मां बाबा अच्छा वर ढूंढते हैं फिर उनकी पसंद की ये खरीदी हुई दर्द क्यों थी?
भला क्या कसूर था मेरा की सिंदूर से पाक रिश्ते में भी मैं छली थी,
समर्पण के नाम पर उस रात मेरी अश्मित भला क्यों जली थी
इतना के बावजूद भी मुझे उस घर में रहने की फरमान क्यों मिली थी?
माना फेरे, शादी और सिंदूर बनाती है किसी को किसी की अमानत फिर भला उस रात मै किसी की जागीर क्यू बनी थी?
सवाल भला करूं तो करूं किस से खोखलेपन से तो भरा पड़ा है ये समाज!
जहां हर रोज झूठी रिवाजे और धुंधली रस्मों के नाम पर कई लड़कियां जबरदस्ती की शिकार है ,
कब थमेगा भला कब ये रुकेगा कब आएगी समझ कि बिना मन का प्यार नहीं होता
समर्पण का मतलब ही प्यार है इसमें कतई जबरदस्ती नहीं होता।
Pallavi joshi