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सलामी कुबूल हो

बाजार में प्रविष्ट करते ही
छोटे-छोटे बच्चे पीछे लग जाते थे,
बाबू जी दे दो, माताजी दे दो,
भैया जी दे दो, दीदी जी दे दो।
स्कूल का समय होता
लेकिन वे माँग रहे होते।
पेट की खातिर हाथ फैला रहे होते।
तभी युवा अजय ओली की
स्नेहिल नजर पड़ी उन पर,
मानवता की भावी पीढ़ी
भीख मांग रही थी इस कदर।
पर्वतीय बाजार में
छोटे बच्चे ठंड में
भूखे प्यासे, नंगे पैर
दौड़ रहे थे मांगने के लिए
राहगीरों के पीछे-पीछे
दृश्य दयनीय था,
हृदय पसीज गया उस
समाजसेवी युवक का,
उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले में
संकल्प लिया उसने,
खुद भी नंगे पांव चलकर,
निरीह बच्चों के दर्द को मिटाने का।
लाखों रुपये की नौकरी का
छोड़कर पैकेज,
नंगे पांव निकल पड़ा वह युवक
देने मैसेज।
आज पिथौरागढ़ में बच्चे
भीख मांगते नहीं दिखते हैं।
अब उनके पढ़ने व खाने की
व्यवस्था कर दी है, उस युवक ने
हजारों किमी की पैदल यात्रा कर
देश भर में बच्चों के लिए
जागरूक कर रहा है समाज को
ऐसे कर्मठ युवा को
कवि की कविता की
सलामी कुबूल हो।
———– डॉ0 सतीश चंद्र पाण्डेय, जेआरएफ-नेट, पीएचडी, संप्रति- चिकित्सा विभाग, चंपावत।

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