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ख़्वाबों की बंज़र ज़मी

देख लूँ एक बार इन आँखों से बारिश को,
तो फिर इन आँखों से कोई काम नहीं लेना है,
बंजर पडे मेरे ख़्वाबों की बस्ती भीग जाए एक बार,
तो फिर इस बस्ती के सूखे हुए ख़्वाबों को कोई नाम नहीं देना है,
चटकता सा खटकता है ये दामन माँ मेरी धरती,
सम्भल कर के बहल जाए फसल जो रूप खिल जाए,
तो फिर धरती के आँगन से कोई ईनाम नही लेना है॥
राही (अंजाना)

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