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Dilly ka pradution

याद आती है उनकी मौजूदगी के दिन,
सुबह की मीठी चाय से शुरू होते थे वे दिन,
बात बात पर मुझे चिढाना उनका ,
मेरा रूठना और फिर मुझे मनाना उनका,
रोज नए नाम से मुझे पुकारना उनका ,
शाम को हाथों में सब्जी लेकर दफ्तर से लौटना उनका,
काश कि हम दिल्ली आए ही न होते ,
तो प्रदूषण की चपेट मे वे पडे ही न होते ,
काश कोई जादू होता और पहिया समय का घुमा पाती मै,
तो सब कुछ पहले जैसा होता ,
कुछ ही दिन पहले समझती थी खुद को खुशकिस्मत ,
अब समझती हूं खुद को बदकिस्मत,
ख्वाबों में तो आते हो रोज तुम ,
पर ख्वाब टूटते ही खुद को पाती हू तन्हा मै ,
विश्वास नहीं होता मन को कि तुम नहीं हो ,
तुम यहीं कहीं हो, यहीं कहीं हो ,यहीं कहीं हो |

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