by vivek

ज़िंदगी

August 8, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

ज़िंदगीज़िंदगी Tragedy 1 मिनट 273 0
vivek netan © Vivek Netan
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#3171 in Poem (Hindi)
#305 in Poem (Hindi)Tragedy
कुछ इस तरह से मुझ से नाराज़ हो गई ज़िंदगी

गाँव की खुली गलियों से शहर ले आई ज़िंदगी

छूट गई पीछे कहीं वो ठंडी खुशगवार सी हवा

आसमां को ढके धूल के बादल में ले आई ज़िंदगी

वो रातों की नींद वो सुकून प्यारी सी सुबह का

दो पैसों के लालच में सब कुछ बेच आई ज़िंदगी

हर तरफ दोस्त थे रिश्तेदार थे हाथ थामने वाले

लाखों की भीड़ में तन्हा जीने ले आई ज़िंदगी

चाहत थी कुछ कर गुजरने की नाम कमाने की

उसी उलझन में खुद ही कहीं उलझ गई ज़िंदगी

रह गया पीछे वो चिड़ियों, तोते से भरा आँगन

उलझे धागों और कटे पतंगों के बीच ले आई ज़िदगी

एक आँसू पोछने दौड़ पड़ता था गाँव सारे का सारा

अब मुझे अकेला मेरे हाल पर छोड़ देती है ज़िंदगी

छूटे वो आमों के और अमरूदों के खुले खुले बाग़

लोहे के गेटों के पीछे छुप के रहने ले आई ज़िंदगी

हर दुःख हर सुख में शरीक होता था हर कोई

लगता था की माँ की तरह प्यारी मीठी है ज़िंदगी

अब हर तरह आवाज़े है पर साथ नहीं है कोई

अब तो लगता है जैसे सौतेली माँ घर ले आई ज़िंदगी

https://storymirror.com/read/poem/hindi/7wlui68c/zindgii/detail

by vivek

भेड़िए और हिरणी

August 7, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

वो कोई जंगल या कोई सुनसान गली ना थी

भीड़ का मंजर था और वो भी अकेली ना थी

भीड़ से ही निकला था इक झुंड भेड़ियों का

उनके लिए वो शिकार थी कोई लड़की ना थी

भागी वो इधर से उधर किसी हिरणी की तरह

मगर चक्रव्यूह से भागने की कोई जगह ना थी

हुई तो थी थोड़ी बहुत उस भीड़ में हलचल

मगर वो इंसान थे जिनमे इन्सानियत ना थी

चिल्लाती रही, भेड़िये ले गए उठा कर उसे

बहरों की भीड़ ने उसकी आवाज़ सुनी ना थी

सब ने सोचा छोड़ो हमें क्या इस झंझट से

प्यारी तो थी मगर वो किसी की सगी ना थी

फेंक गए वो उसे उसकी आत्मा को नोच कर

पूरे शहर में इक अजब सी बेचैनी क्यों थी

गूंगा बहरा था जो शहर कल भेड़ियों के सामने

आज नारे लगे खूब मगर खून में रवानी ना थी

सुना है के परसों लटक जायेगी वो पेड़ से

सब को लगता है की वो ही तो बेहया थी

अगर बनाने ही थी ऐ ख़ुदा भड़िये तुझ को

तो रहम करता ये मासूम हिरणियाँ बनानी न थी

https://storymirror.com/read/poem/hindi/mfyyirel/bhedddhie-aur-hirnnii/detail

by vivek

लाइफ इन सिटी

August 5, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

थकी – थकी – सी है यह बेज़ार ज़िंदगी

अब इसे थोड़े आराम की ज़रूरत है

पसीने – पसीने हो गई है जल – जल के

इसे ठंडी सुहानी शाम की ज़रूरत है !

अरसा हो गया है

अपनों से मिले हुए

फिर होली या दिवाली की ज़रूरत है !

अकेले हैं हम

हज़ारो की भीड़ में

हमसफर की नहीं

अब साथी की ज़रूरत है !

आवाज़ें तो रोज़ ही सुनता हूँ अपनों की

अब सामने बैठ के

बतियाने की ज़रूरत है !

“हेलो ! हाय !” – से अब सुकून मिलता ही नहीं

किसी से गले मिल के

रोने की ज़रूरत है !

थक जाता हूँ

दो रोटी कमाने के चक्कर में

कहीं दूर पहाड़ों में

भटक जाने की ज़रूरत है !

बस करवटें बदल – बदल के

गुज़रती है रात

लगता है फिर से

माँ की लोरी की ज़रूरत है !

किराए के मकान में

बिखरा हुआ सामान

फिर से छोटी बहन के

आने की ज़रूरत है !

क्या खाया, कब खाया, क्यों खाया

खबर नहीं !

लगता है फिर से

पापा की डांट की ज़रूरत है !

आते – जाते बस भीड़ का

समंदर ही समंदर

आज फिर गांव की

कच्ची सड़कों की ज़रूरत है !

कोई समझता नहीं

तो कोई समझाता नहीं

फिर पेड़ की नीचे लगी

चौपाल की ज़रूरत है !

ज़रूरतें ही ले आई थीं

मुझे अपनों से दूर

अब मुझे फिर से

अपनों की ही ज़रूरत है !

अब किस तरफ जाऊं

समझ आता ही नहीं

इस तरफ घर की

उस तरफ मेरी ज़रूरत है !

https://storymirror.com/read/poem/hindi/yt3xwuot/laaiph-in-sittii/detail

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