अंत ही आरंभ है
बड़ रहा अधर्म है, बड़ रहे कुकर्म हैं।
इनके जवाब में आज वो उठ खड़ी।।
तोड़ कर सब बेड़ियाँ, हुंकार है भरी।
अपने स्वाभिमान के लिए है वो उठ खड़ी।
संयम त्याग कर, ललकार है भरी।
ललकार प्रचंड है, तांडव का आरंभ है।
धैर्य का टूटना आरंभ है विनाश का।
विनाश ये प्रचंड है, भयावह अब अंत है
अंत ही आरंभ है, यही तो प्रसंग है।।।
आपके शब्दों की झंकार कविता के अर्थ को काफ़ी बेहतर तरीक़े से प्रस्तुत करती है। beautiful poem
आपका बहुत बहुत धन्यावाद
Kya khoob likha he
वाह बहुत सुंदर रचना ढेरों बधाइयां
वाह बहुत सुंदर
Good