अरमां था ज़िंदगी

अरमां था ज़िंदगी से कभी मुलाकात होगी
बिठा पलकों पे कुछ खास बात होगी
सोचता था होगी ज़िंदगी मेरी फूलों की तरह
निकाले होगी घूँघट किसी रहस्य की तरह
कभी आती जब ज़िंदगी मेरे ख्वाब में
नज़र आती ज़िंदगी मुझे एक नक़ाब में
हाथ में उसके विष से भरा सोने का प्याला
पहने गले में मधुमय काँटों की माला
कभी लगता है वो मनचाही किताब
कभी लगता ज़िंदगी है आंसुओं का सैलाब

ये तो एक ख्वाब है ,पर क्या ज़िंदगी ख्वाब नहीं है
खड़े कई प्रश्न ऐसे जिसका कोई जवाब नहीं है
गर जो मिली मुझको ले लूँगा प्रश्नों के घेरे में
होते हुई भी मेरी क्या भेद है तेरे मेरे में
ज़िंदगी तेरे इतने रंग है जो समझ से परे
हर सांस अजनबी सवाल वही तेरे मेरे
ज़िंदगी का अंत है मौत ,तो मौत का अंत भी होता होगा
मौत की आगोश में कभी ग़म भी तो सोता होगा
कल रात ख्वाब में मेरी आई ज़िंदगी
अपनी कम ज्यादा पराई लगी ज़िंदगी
मौत के अहसास से समझ पाया ज़िंदगी की शान
ज़िंदगी तो निकली रेगिस्तान में काटों की तरह ‘अरमान
राजेश ‘अरमान’ २०/०४/१९९०

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