अहिल्या पत्थर बनायी जाती है
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करनी किसी की भी हो,सतायी नारी जाती है ।
हवस हो इन्द्र की,अहिल्या पत्थर बनायी जाती है ।।
युग युगांतर से यही,बस होता आया है
अहम तुष्टि हो नर की, कलंक नारी पे छाया है
रूप यौवन,सौम्यता नारी ने ईश्वर से पाया है
हरहाल में दुश्मन,बनी उसकी ही काया है
चिथङे उङते सम्मान के,कलंकनी कहलायी ज़ाती है ।
हवस हो इन्द्र की–
मान गया,सम्मान गया,अनचाहा जीवन पाया है
नारी की अस्मिता पर,कैसा संकट छाया है
अन्तर्मन को भेदती निगाहें,दरिन्दगी का कहर ढाहा है
भूलता क्यू है वो भी, किसी जननी का जाया है
बहसी बना वह ,कमी उसमें निकाली जाती है ।
हवस हो इन्द्र की,अहिल्या पत्थर बनायी जाती है ।।—–
बस फर्क इतना है तब व अब की नारी की आह में
हर एक से ठोकर खाती,अहिल्या पङी थी राह में
गौतम का कोपभाजन बन बैठी,इन्द्र की चाल में
बनी शीला उद्धार हेतु, राम के इन्तजार में
दोष किसी की नियत का,दोषी वही ठहरायी जाती है ।
हवस हो इन्द्र की,अहिल्या पत्थर बनायी जाती है ।।—
कल नहीं थी,आज भी कहाँ,नारी सुरक्षित रहती है
चौक-चौराहे पे,अनामिका की आवरू,लुटती रहती है
दुष्कर्म से पीड़ित,नहीं तो,एसिड से जलती रहती है
कोख में,तो कभी,दहेज की वेदी पे चढ़ती रहती है
अत्याचारी है कोई,अंगुली नारी पे उठायी जाती है ।–