उठाना …. धीरे से
धीरे से उठाना
सदियों से गह्न निद्रा में , है सोया यह समाज़ ,
धीरे से उठाना
युगों का अंधकार समेटे , है सोया यह समाज़ ,
धीरे से उठाना
इसको सुबह की नहीं कोई ख़बर ,
युगों से सोया है यह बेखबर
भिन्नता में दबा इसका चित् ,
समानता नहीं इसके मित
सुलाया इसे इतिहास के थपेड़ों ने ,
कभी शासन की शमशीरों ने ,
कभी धर्मों की जंजीरों ने ,
तो कभी समाज के लुटेरों ने
पीड़ी दर पीड़ी इसे मार पड़ी ,
युगों-युग इसकी कब्र गड़ी
चाह के भी उठ ना पाएगा ,
जग कर भी जग ना पाएगा
सोना इसका मुकद्दर है ,
यही मुझे अब बदलना है
यूई इस डगर मत गभराना ,
बस , इसे धीरे से उठाना
तुझे राह दिखाने आया हूँ ,
राह दिखा कर जाऊँगा
तुझे जगाने आया हूँ ,
जगा कर ही अब जाऊँगा
कष्ट जगने में इसको तनिक होगा ,
खफा मुझ पे यह अधिक होगा
युगों-युग जिसने भी इसे जगाया है ,
इसने उसे ही मौत का जाम पिलाया है
दिखा इसको रोशनी का संसार ,
कर दे इसकी रातों को बेकरार
जब होगा इसको सुबह का इंतज़ार ,
तब होगा उठने को यह ख़ुद बेकरार
…… यूई
Nice poem Vijay ji
Thanks for your kind words Savita