एक रस होने की आस
वो पूर्ण शक्ति जब बिखर गया,
कण-कण में सिमट गया ,
तब हुआ इस जग का निर्माण,
वो परमपिता सृजनकर्ता जो,
नित्य सूर्य बन अपनी किरणो से,
नव स्फूर्ति का जीवो में करता संचार,
वो ममतामयी चाँद की चाँदनी बन,
स्नेहिल शीतलता का आँचल फैलाए,
हम जीवो को सहलाता,
टिम-टिम तारो के मंद प्रकाश में,
नयनो में निद्रा बन समाता,
खुली नयनो के अनदेखे सपने,
ले आगोश में हमें दिखाता,
पूर्ण प्रेम जो कण-कण में बिखरा,
एक रस होने की आस जगाता,
तनमयता. को प्रयासरत जीव,
घुलने को, मिटने को,
आपस में जुड़ने को,
पूर्ण प्रेम को पाने को,
व्यथित हुआ है जगत में,
जीव अपना अस्तित्व बनाने को,
इसी धुन में जन-जीवन चलता,
तन मिलता, मन नहीं जुड़ता,
कण-कण में जब बिखरा है,
वो कैसे मिले जमाने को ।।
bahut sundar rachna
Thanks a lot DEEPAK ji
Beautiful poem Ritu 🙂
Thanks a lot Anjali
Nice kavita ji
Thanks a lot Sridhar ji
bemisaal rachna!!
Thanks a lot Ajay ji