एक समकालीन गीत
देहरी लाँघी नहीं
घुटन में घुटती रहीं
बच्चे रसोई बिस्तरे की
दूरियाँ भरती रहीं
बंदिशों की खिड़कियों के
काँच सारे तोड़ डाले
लो तुम्हें आजाद करता हूँ |
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पायलों ने पाँव कितने
आज तक घायल किए
घूँघटों की मार से
तुम बहुत व्याकुल हुए
कनक चूड़ी केयूर कंगन
बीस कैरट के हुए
तोड़ कर यह मेखला
फिर से तुम्हें आबाद करता हूँ |
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पेड़ की छाया घनेरी
कहो कैसे मान लूँ
जागीर उनके वंश की
कैसे कहो यह जान लूँ
दो साथ मेरा
और तुम आगे बढ़ो
इस घृणित संवाद को
बरबाद करता हूँ |
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तुम नहीं हो सोच लो
लूट का सामान
रोटियों का परोथन
परित्यक्त पायेदान
उगते हुए दिनमान की
मुस्कान पहली
पीढ़ियों के दमन का
प्रतिवाद करता हूँ|
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बरबादियों के ढेर पर
घेर कर जो ले गए
ढेर होंगे वे अँधेरे
जो अँधेरा दे गए
रोशनी का हक़ तुम्हें
मिल कर रहेगा
लो भरी इजलास में
फरियाद करता हूँ|
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डॉ. मनोहर अभय
bahut khoob!
Nice