कहाँ तो आरजुएं थी
वक़्त की चाल के अंदाज़ निराले तो न थे
ख्वाब ही सो गए लेके कोई करवट शायद
कहाँ तो आरजुएं थी तेरे मिलने की
यां तो खुद ही हिस्सों में बट गए शायद
जुबान पे क्यों कोई इल्ज़ाम रहें
खता मेरी जो चुप रह गए शायद
मैं ही चल न सका साथ कारवां के
फ़ासले काफिलों से यू बढ़ गए शायद
हर सीने में मंज़िलें धड़कती है
यही रिश्ता बस रह गया शायद
निस्बत कुछ इस तरह निभाई गई
पास रहकर भी दूर रह गए शायद
चंद कतरे भीगे साथ रख ‘अरमान’
अब आँखों में नमी आ जाये शायद
बहुत सुंदर