किताब का फूल
अब घर कि हर एक चीज बदल दी मैने ..
सिक्कों को भी नोटों से बदल बैठा हूं..
पर उस फूल का क्या जो किसी ईक धूल पड़ी..
मैने किताब में बरसों से दबा रक्खा है..
जिसे दुनिया कि भीड़ से कभी तन्हा होकर..
मैं , किताब खोल देख लिया करता हूं..
वो उस फूल के मानिंन्द तो नहीं जिसको..
यूं ही कलियों को झटक तोड़ दिया करता हूं..
जो खुद ओंस की बूंदों से अनभिगा है पर..
जिसको देखे से ये पलकें भी भीग जाती है..
जिसकी खुसबू सिमट के रह गई है पन्नों में..
फ़िर भी, लांघ के सागर के पार जाती है..
युं हि चौंका न करो बैठ के तन्हाई में..
जो अचानक से तुम्हें मेरी याद आती है..
तुम्हि बतओ भला कैसे बदल दूं उसको..
वो जो ,मेरी खुशियों को इक सहारा है..
तेरे गुलशन में फ़ूल उस्से कई उम्दा हैं..
मेरि गर्दिश का मगर वो हि इक सितारा है..
माफ़ करना वो फूल मैं नही बदल सकता..
माफ़ करना..कि मैं नही बदल सकता…
– सोनित
bahut sundar 🙂
thank you sulekha ji. 🙂
वाह बहुत सुंदर