Author: Sonit Bopche
अकेला था तो मैं इस भीड़ में खोने से डरता था…
अकेला था तो मैं इस भीड़ में खोने से डरता था…
वो हिन्द का सपूत है..
लहू लुहान जिस्म रक्त आँख में चड़ा हुआ.. गिरा मगर झुका नहीं..पकड़ ध्वजा खड़ा हुआ.. वो सिंह सा दहाड़ता.. वो पर्वतें उखाड़ता.. जो बढ़ रहा…
शेर
” अब जाना क्यूँ दीवानों को दुनिया परवाना कहती है.. हमने सौ बार मोहब्बत की..हम सौ बार जले यारों..” -सोनित
यादें
शांत समुद्र.. दूर क्षितिज.. साँझ की वेला.. डूबता सूरज.. पंछी की चहक.. फूलों की महक.. बहके से कदम.. तुझ ओर सनम.. उठता है यूँ ही..…
आज तन पर प्राण भारी
आज तन पर प्राण भारी
कचरेवाली
इक कचरेवाली रोज दोपहर.. कचरे के ढेर पे आती है.. तहें टटोलती है उसकी.. जैसे गोताखोर कोई.. सागर की कोख टटोलता है.. उलटती है..पलटती है..…
चल अम्बर अम्बर हो लें..
चल अम्बर अम्बर हो लें.. धरती की छाती खोलें.. ख्वाबों के बीज निकालें.. इन उम्मीदों में बो लें.. सागर की सतही बोलो.. कब शांत रहा…
सौ सवाल करता हूँ..
सौ सवाल करता हूँ.. रोता हूँ..बिलखता हूँ.. बवाल करता हूँ.. हाँ मैं………. सौ सवाल करता हूँ.. फिर भी लाकर उसी रस्ते पे पटक देता है..…
क्या दोष तुम्हें दूँ तुम ही कहो..
क्या दोष तुम्हें दूँ तुम ही कहो.. क्या दोष तुम्हें दूँ तुम ही कहो.. इस रिश्ते की बुनियाद हिलाने की शुरुआत तो मैंने की थी..…
जश्न-ए-आजादी में “इन भारतीयों” को न भूलना…
यहाँ जिस्म ढकने की जद्दोजहद में… मरते हैं लाखों..कफ़न सीते सीते… जरा गौर से उनके चेहरों को देखो… हँसते हैं कैसे जहर पीते पीते… वो…
वो हिन्द का सपूत है..
लहू लुहान जिस्म रक्त आँख में चड़ा हुआ.. गिरा मगर झुका नहीं..पकड़ ध्वजा खड़ा हुआ.. वो सिंह सा दहाड़ता.. वो पर्वतें उखाड़ता.. जो बढ़ रहा…
|| दहेजी दानव ||
बेटा अपना अफसर है.. दफ्तर में बैठा करता है.. जी बंगला गाड़ी सबकुछ है.. पैसे भी ऐठा करता है.. पर क्या है दरअसल ऐसा है..…
चांद..
कल फिर गया था मैं घर की छत पर उस चांद को देखने इस उम्मीद में की शायद तुम भी उस पल उसे ही निहार…
तुम्हारी याद आती है..
हवाएँ मुस्कुराकर जब घटाओं को बुलाती है.. शजर मदहोश होते हैं..तुम्हारी याद आती है.. इन्ही आँखों का पानी फिर उतर आता है होठों तक.. भिगोकर…
ये वो कली है जो अब मुरझाने लगी है..
कश्तियाँ समंदर को ठुकराने लगी है.. तुमसे भी बगावत की बू आने लगी है.. मत पूछिए क्या शहर में चर्चा है इन दिनों.. मुर्दों की…
मैं रोज नशा करता हूँ… गम रोज गलत होता है…
इक हाथ सम्हलती बोतल… दूजे में ख़त होता है… मैं रोज नशा करता हूँ… गम रोज गलत होता है… तरकश पे तीर चड़ाकर… बेचूक निशाना…
तुम भी तो इक माँ हो आखिर..
जैसे गोरे गालों पर माँ काला टीका करती थी तुमने काली रातों में इक उजला चांद सजाया है तुम भी तो इक माँ हो आखिर..…
किताब का फूल
अब घर कि हर एक चीज बदल दी मैने .. सिक्कों को भी नोटों से बदल बैठा हूं.. पर उस फूल का क्या जो किसी…
तुम्हारी याद भी चलकर मिटा लेता अगर थोड़ी…
बुरा क्या था अगर इस दर्द के मै साथ में दिलबर… तुम्हारी याद भी चलकर मिटा लेता अगर थोड़ी… दवाखाने में क्यूँ छोड़ा जरा चलते…
सिलवटें जाती नहीं..
नींद भी आती नहीं.. रात भी जाती नही.. कोशिशें इन करवटों की.. रंग कुछ लाती नहीं.. चादरों की सिलवटों सी हो गई है जिंदगी..…