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खिलौना मत बनाना

कविता-खिलौना मत बनाना
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हे कुम्हार,
मत बना खिलौना हमें,
जमाना खेलें , तोड़ के,
मिटा दे मेरी हस्ती को,
बेचे किसी बाजार में,
कोई खरीदें मुझे,
बाजार की सबसे
सस्ती वस्तु समझ,
मिट्टी से बना हूं,
मिट्टी में ही मिल जाऊंगा,
किसी के घर की शोभा,
किसी बच्चें की मुस्कान,
किसी मेले की शान,
आपस में लड़े बच्चें,
कोई हंसे तो कोई रोए,
किसी के लिए सस्ता,
किसी के लिए महंगा,
वो जरा
सून कुम्हार,
हमें ऐसी वस्तु मत बना|
मैं गीली मिट्टी हूं,
तेरे हाथ चाक की काया हूं
तू चाहे जैसा ,आकार दे दे,
खड़े खड़े बाजार में ही ,चाहे तो बेच दे,
बना जानवर चाहें,
मंदिर के चौखट को,
घर के ओसार को,
सदा सदा प्रकाश दे ,
वह मुझे दीपक बना,
जब कुछ भी ,ना समझ आए,
मिट्टी को आकार देने की,
ठहर जाना वही कुम्हार,
फिर छोटा सा आकार देकर-
जला देना-
आग की भट्टी में,
बेरहम होकर पका देना,
इस बार खिलौना मत बनाना,
दर्द बहुत होता हैं-
हमें कोई तोड़े ,कोई फेंके|
इस बार मुझे-
ईट बनना,
किसी मंदिर की सीढ़ी,
किसी मस्जिद की गुंबद,
किसी शहर में मीनार बनू,
यह सब बनने से पहले,
इन सब का नीव बन जाऊं ,
क्यों अस्तित्व में आए,
जग को अपनी पहचान बताएं,
छुपा रहूंगा मिट्टी में दफन होकर,
अहसान समझेगा महल भी,
खड़ा आज जिसके ऊपर|
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**✍ऋषि कुमार ‘प्रभाकर’—-

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