गंध
वह अदृश्य गंध
अनाम सी
अपरिभाषित सी
मन में बसी हुई
जानी पहचानी सी
जिसकी खोज ज़ारी है
कल्पना के कितने ही क्षण जी उठते हैं
अनिरवचनीय आंनद के रस पी उठते हैं
हवा में कुछ घुल सा जाता है
जब आँचल तेरा लहराता है
अद्भुत सी अंगड़ाइयां तेरी
सूर्य को पराजित करती परछाइयाँ तेरी
रात में चंद्रमा भी टकटकी लगाए रहता है
थोड़ी सी गंध बस जाए उसके मन में भी वह कहता है
पर दूरियों का क्या करे वह
मज़बूरियों का क्या करे वह
सिर्फ दिन रात चक्कर काट काट कर
गंध को मन में बसा लेना चाहता है
अपनी रातों को सजा लेना चाहता है
पर वह गंध मिलती कहाँ
वह अपनी माटी की खुशबू दिखती कहाँ
अब तो मिलती है प्रदूषित हवा
नालियों की सड़ांध
और गंध को मन में बसाये लोग
भागते ईधर से उधर
दिन रात भर
मन में एक चाह है
उस गंध को फिर से महसूसने की
जिसमे बचपन बीता
अपने पैरों से चलना सीखा
वह मिटटी की गंध
सौंधी खुशबू ।
तेज
shukriya share karne ke liye…. nayab kavita
bahut bahut dhanyvad ,AJAY JI FOR LIKING THE POEM.