तुम देह नहीं तुम देहाकार हो
तुम देह नहीं तुम देहाकार हो
देह में हो देह से मगर पार हो
क्या दिखायेगा रूप दर्पण तुम्हारा
देखो अंतर में, खुलेगा राज सारा
शाश्वत सौंदर्य ज्योति पारावार हो
देह में हो देह से मगर पार हो.
क्षणिक मौजों सा देह का उभार है
मुखडे में देखे क्यों सौंदर्य-सार है
भूले तुम, आत्मा का कैसे श्रंगार हो
देह में हो देह से मगर पार हो.
देख दर्पण ना जीवन गवां प्राणी
ह्दय नगरी में उतर हो जा फानी
ज्ञान रत्नों पूर्ण तेरे उदगार हो
देह में हो देह से मगर पार हो.
परख स्वयं को आत्मा खुद को मान
आत्माओं का पिता, परमात्मा को जान
ईश्वर स्वरूप गुणों का भंडार हो
देह में हो देह से मगर पार हो.
Waah
Thanks
Good
Thanks
अंजू कृपया मेरी कविता (महात्मा गाँधी )पर कमेंट कर दो
वाह
Thanks
वाह
सुन्दर