तेरे सायें से लिपटना मेरी आदत भी नहीं

तेरे सायें से लिपटना मेरी आदत भी नहीं
प्यार तो दूर बहुत मैं तेरी नफरत भी नहीं

क्या दबा रखा है अंदर किसी खंजर की तरह
अब मरासिम न सही मगर ऐसी अदावत भी नहीं

ज़ख्म गीले है अपने कहीं तो निशां रहेंगे लेकिन
दिल में इक शोर है मगर ऐसी बगावत भी नहीं

अपने अंदर हूँ खुद किसी अजनबी की तरह
जान पहचान की मगर कोई फुर्सत भी नहीं

यूँ तो मिलते है सभी अपने ही सायों की तरह
हाथ तो बढ़ते है मगर ऐसी कुर्बत भी नहीं

राजेश ‘अरमान’
२०-०२-२०१६

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Responses

  1. अपने अंदर हूँ खुद किसी अजनबी की तरह..
    जान पहचान की मगर कोई फुर्सत भी नहीं….. Shaandaar

  2. अपने अंदर हूँ खुद किसी अजनबी की तरह
    जान पहचान की मगर कोई फुर्सत भी नहीं .. Subhan Allah

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