दर्द के चरागों को बुझने का

दर्द के चरागों को बुझने का कोई बसेरा दे दो
ग़ुम हुए लोगों को कोई इक नया चेहरा दे दो

इन सुर्ख आँखों का कसूर तुम्हारा हिस्सा है
इन आँखों को तुम कोई ख्वाब सुनहरा दे दो

न शजर, न कोई शाख, न पत्तों का कसूर
अपने बाग़ों को बस थोड़ा सा चेहरा दे दो

छोटी छोटी बातों से क्यों जख्म रोज़ देते हो
एक बार ही कोई ज़ख्म मुझे गहरा दे दो

निस्बत कुछ ज़माने से यूँ निभाए न कोई
हर रिवाज़ों पे ज़माने का कोई पहरा दे दो

चीखें सुनकर भी वो खामोश से बैठे है
काश मुझे साथी कोई बहरा दे दो

समुन्दर न मिला कोई बात नहीं
दिल बहलाने को कोई सेहरा दे दो

हर तरफ बदलने का गर्म बाजार ‘अरमान’
ले के पुराना कोई नया गम ठहरा दे दो
राजेश ‘अरमान’

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Responses

  1. राह देखते देखते उनकी सूख गयी है आंखे हमारी
    अब कम से कम, उनके आने का इक सपना दे दो

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