निर्भया कितनी दफा रोई
दरिंदों की पनाहों में
सिसकता ही रहा यौवन
वासना की बाँहों में
तब तलक रूठेगा बचपन
पूँछती है यही नारी
मरेगी कब तलक बेटी
बचेगा कब तलक अत्याचारी
पुरुष की बन के कठपुतली
नाचती क्यों है हर औरत
उसी के आँचल में है जन्नत
और कदमों तले शोहरत
उसके आगे तो ईश्वर भी
सिर झुकाता है
नारी ही जने पुरुष को
वह ये क्यों भूल जाता है
तो आखिर क्यों उसी कोख को
कलंकित करता है कोई
यही सोंचकर प्रज्ञा’ हाय !
कितनी दफा रोई..