पंछी इक देखा पिंजरे

पंछी इक देखा पिंजरे को कुतरता हुआ
आज़ादी एक जुनूँ होती है एहसास हुआ

बादल ही देते है बारिश और बिज़ली भी
इस दुनिया के भी दो रूप का एहसास हुआ

दरख्तों की जुबां भी हम जैसी सहमी है
गिरी कोई शाख शजर से तो एहसास हुआ

ख़ामोशी तिरी बेकल है उसे यूँ ही रहने दो
यहाँ लफ़्ज़ों का किसे ,जरा सा एहसास हुआ

रस्तों को किसी के ,कब आंधिओं ने रोका है
रूका है इंसा ही ,बारहा ये एहसास हुआ

आसमा की उचाईआं ही मंज़िल हो ज़रूरी नहीं
खुद का भी आसमा हो सकता है एहसास हुआ

परदे में रहने दो ,जो चुभता है ‘अरमान ”
पर्दादारी भी एक हक़ीक़त है एहसास हुआ

राजेश’अरमान’

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