कभी ना भूलेगी वो
पूस की रात…….
ठंडी सर्द हवाओं और
बारिश की बूंदों के साथ……
मैं और मेरी तन्हाई
बस दो ही थे।
उस दिन वो
बारिश की नर्मी
और चादर की
सिलवट वैसी ही थी
जैसी मैनें छोड़ी थी …..
मौसम कितना भीगा सा था
उस पूस की रात में
बारिश की बूंदों ने
मन के सारे घावों
पर मरहम लगा दिया था…….
मैं और मेरी तन्हाई बस
डूबने वाले ही थे
तुम्हारी यादों के
समंदर में………
अचानक मैंने देखा कि
एक बुलबुल काफी
भीगी हुई कांप रही थी
बारिश में भीग गई थी शायद…….
मुझे ऐसे देख रही थी
मानो मुझसे कह रही हो
मुझे आज यहीं रहने दो
एक रात का आसरा दे दो……
मैं एकटक उसी को
देखती रही ।
सुबह जब आंख खुली
तो देखा धूप बारिश की बूंदों पर
चमक रही थी …..
बारिश बंद थी ,
वह बुलबुल भी जा चुकी थी
शायद मेरे उठने से पहले ही
चली गई थी वो……..
लेकिन उसका एक
पंख पड़ा था
शायद मुझे एक रात
का नजराना या निशानी दे गई थी …….
उस पंख को
जब मैंने उठाया तो
लिखा था कि ‘फिर आऊंगी’……
आज फिर आ गयी ‘पूस की रात’
मुझे फिर से उस बुलबुल का
इन्तज़ार है…
मुझे कभी ना भूलेगी
वो बुलबुल वो बारिश और
वो पूस की रात ………