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प्रेम- पिपासु

आज कुछ बदला- बदला मिज़ाज है
दिल भी बेताब है
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सिसकियाँ भी खामोश हैं
लफ्जों में मिठास है
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गूंजती जा रही है
गलियों में शहनाई
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बींद के इन्तज़ार में
बीती जा रही है स्वर्ण रात्रि
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गेसुओं की घनी छाँव के तले बैठी
मेरी ख्वाइशों भरी एक शाम है
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उनकी आहटों पर फिर फिसला
मेरी तमन्नाओं का हार है
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खिसक रहे थे जो सपनें
आज हाँथ में आया वही लम्हात है
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प्रेम-पिपासु हूँ जी भर के
पिला दे साकी
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टपक रही जो तेरे
लब से बादा(शराब)है ।

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