‘फिर क्या हो..’

किया है कभी गौर की गये मयखाने में और ना चढी शराब तो क्या होगा ,
गर पिला जायें कोई हुश्न के दो चार जाम आँखों-आँखों में तो क्या होगा ,

इश्क तो कर बैठे हो बेरुखी के इस मंजर में क्या पता है तुम्हें अंजाम क्या होगा,
अजा़ब तो होगी ही चारों तरफ गर ना मिली जनाज़े को आग तो फिर क्या होगा,

तैय्यार तो है ही सब यहाँ अंजाम ए अजा़ब को गर पड़ गये कफन पर दाग तो फिर क्या होगा,
गर राहें कर दें मंजिल का इशारा और लड़खड़ा जायें पांव तो फिर क्या होगा,

शब ए हिज्र को भी गर नींद ना आयी और बेचैन हो गये ख्वाब तो फिर क्या होगा,
इन्तजार की रात का भी गर अंजाम हो जुदा़ई तो हालात क्या होगा,

जिसकी जुस्तज़ू में लगे हो दिन रात हासिल ना हुआ वो मुकाम तो क्या होगा ,
बातों बातों में चुभने लगे अल़्फाज़ रास ना आये प्यार के अन्दाज तो फिर क्या होगा ,

गर दरीचों ने खोल दिये वस़्लों के राज और,
एन वक्त.पर मुख़्तलिफ़ हो गये ख्वाब तो फिर क्या होगा,

चिराग ए उम्मीद को भी गर बुझा जायें तूफान और,
आफ्ता़ब भी ना ला पायें नूरी की शाम तो फिर क्या होगा ,

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