ये बूढ़ी आँखें
ये बूढ़ी आँखें।
ये सब कुछ तांके।।
ये सल भरे पन्ने।
पुरानी किताबें।।
विशाल से वृक्ष थे।
जो अब झुक गय हैं।।
दौड़ते धावक थे।
जो अब रुक गय हैं।।
कुछ गांठों को।
ये सुलझा गये हैं।।
ये सुगंधित पुष्प थे।
जो मुरझा गये हैं।।
इस समंदर की।
ये अनुभवी लहर हैं।।
इनके विचारों।
से ही सहर है।।
इन की थपकी से।
निंदिया आती।।
कहानी,किस्सों से।
साँझ ढल जाती।।
ये कल की सोचें।
ये कल में झांकें।।
ये कल की निगाहें।
आज कुछ चाहें।।
कपड़ा,खाना और चार दिवारी।
जिसमे गुंझे बाल-किलकारी।।
दर्द सहते हैं मन है धरा सा।
चाहिए इनको प्यार ज़रा सा।।
थोड़ी फरमाइशें।
थोड़ी सी ख्वाइश।।
बच्चे बन गए हैं।
जो कभी थे वाइज़।।
ये ज़िद भी करेंगे।
तुम चिढ़ न जाना।।
बस याद कर लेना।
वो वक़्त पुराना।।
अपमान जो करता।
वो ज़ुर्मि ज़ालिम है।।
ऐसे ज़ालिमों का।
पतन लाज़िम है।।
हर घर में हों।
दो बूढ़ी आँखें।।
जो सब को मिलाकर।
परिवार बना दें।।
हर इन्सां को।
मेरी हिदायत है।।
के इन की सेवा।
ही ज़ियारत है।।
#अश्क??
bahut khoob!
दर्द सहते हैं मन है धरा सा।
चाहिए इनको प्यार ज़रा सा …. Khoob Khaa Saheb
kya khub likha he..nice