है तो इंसा ही हम

है तो इंसा ही हम कोई खुदा नहीं है,
गुस्ताखिओं की और कोई वज़ह नहीं है

गिरते झरने से, अच्छे लगते है उड़ते परिंदे
पर मेरा अक्स ये जमीं है कोई आस्मां नहीं है

यूँ तो रखते है हम भी बेइंतेहा पाक नज़र
पर वज़ूद खाक है ,किसी मस्जिद की चौखट नहीं है

सरफ़रोश हो भी जाते गर गमजदा न होते
पर तुझ पे मिटना भी सरफ़रोशी से कम नहीं है

गर्दिश-ऐ -मुदाम से हम हो गए इतने आज़र्दाह
आब-ए-आईना हूँ ,पर अपनी ही सूरत नहीं है

हमने ढोये है जिनके इलज़ाम अपने सिर पर
अब उनके किस्सों में मेरा नाम तक नहीं है

कल जो गुजरी वो रात बहुत लम्बी थी
बात तन्हाई की है , एक रात की नहीं है

अबद से टूटे कई शीशे ज़माने के पत्थरों से
हम खुद हो गए पत्थर अब कोई शीशा नहीं है

ले के बैठे रहे ताउम्र वसीयत में वफादारी ‘अरमान’
लोग कहते के, ये इस ज़माने का आदमी नहीं है

राजेश’अरमान’
अबद=अनन्तकाल
आब-ए-आईना= दर्पण की चमक
आज़र्दाह= उदास, दु:खित, खीजा हुआ, व्याकुल,बेचैन

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