ज़िंन्दगी एक दिन की
ज़िंन्दगी एक दिन की
मेरा हर सुबह मौत के गर्भ से
ख़ुद को जन्म देना
हर रात ढले अपने ही कंधों पे
ख़ुद को मरघट ले जाना
उस मंदिर के आँगन में,
ख़ुद को खुद की ही आग में जला देना
मेरे से बेहतर इस जीवन को
ना कोई ज़ीया , ना जीयेगा
इस जीवन मेँ , ना जन्म की ख़ुशी
इस मौत मेँ , ना मरने का ड़र
ना रोज़ मरते-गिरते रिश्तों के बोझ
ना झूठे-खोख्ले वायदों की दुनीया
बस मौत मेरी मेहबूबा
और मैँ उसका हम-दम
ईधर दिन भऱ मेरे मन में
एक बेकरारी सी रहती है
अपनी शाम के इंतज़ार मेँ
उधर मरघट में मेरी मेहबूबा
ईत्मिनान से रहती है
उसको मालूम है
यूई अभी आयेगा
खुद को जला
मेरी आग़ोश में बस जायेगा
सबको मालूम है
यह बसती ही अस्ली बसती है
यहा बसने वाले
कभी उजड़ा नही करते
…… यूई
excellent poem about life!
Thanks for your kind words Panna Ji
nice poem 🙂