अंत का आरंभ।

आज उस घर में एक उजला सा दीपक जल रहा,
की आज उनके घर में उनका कुल रौशन करने वाला आया है,
सारे घरवाले एक टक से उसको निहार रहे हैं,
मानो नजरों से ही उसकी आरती उतार रहे हैं,
की बड़े इत्मीनान से उसका दाखिला कराया था,
फिर शाम को मां ने बड़े प्यार से खाना खिलाया था,
अपना हल्का बस्ता लेकर वो अपना रास्ता नापता था,
समय देखने में कच्चा था,
पर कितने बजे बल्ला घुमाना था,
वो अच्छे से जानता था।
समय का मंजर बदला और देखते ही देखते वो बड़ा हुआ,
हल्के बस्ते से झूलता वो बच्चा अब है जिम्मेदारियों से लदा हुआ,
सफर गुज़रा और मुलाकात उसकी हमसफर से हुई,
कोशिशें कुछ इधर तो कुछ उधर से हुई।
की वो खो गए थे एक दूसरे के आंखों में,
एक रोज थे वो एक दूसरे के बाहों में,
अब मसला जिम्मेदारियों का था,
और बोझ दिल में नाकामियों का था,
एक रोज वो इस दुनिया की भीड़ में गुम हो गया,
उसके जिंदगी का हर मुकाम अब जो पूरा हो गया,
वो परिवार को इज्जत, शोहरत रुतबा सब दे गया
इस फलसफे में खुद को एक जिंदगी देना रह गया।
बड़े इतमिनान से जो दाखिला कराया था,
इसी ने उसको अंदर से खोखला कराया था
हाल पूछने पर कहता इस दिल को तभी खुरेदना जो इसके जख्म संभाल सको,
हमारा हाल तभी पूछना जो हमारा हाल जान सको।
वो मुकाबला नही कर पाया इस जमाने से,
मालूम था घर नही चलता झूठे बहानों से,
उसका खून उस एक रोज नही
काफी समय पहले हो चुका था
जहर का प्याला पीकर भी उठ सकता था,।
पर मानो जीने का अब उसको मन नही था
सरेआम कत्ल हुआ उसका,
जमाने के मुंह से एक लफ्ज़ न निकला,
जो ढूंढने निकले कातिल का पता
पूरा ज़माना ही कातिल निकला
किसी और की जरूरत थी ही नही,
वो खुद ही अपने संग नही था

वो एक शक्स हजारों में था,
पर अब वो सितारा सितारों में था।
इत्तेफाक तो देखो आज दिवाली है,
और उनके घर एक उजड़ा सा दीपक जल रहा।

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