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अभिलाषा

ये सृष्टि हर क्षण अग्रसर है
विनाश की ओर…
स्वार्थ, वासना और वैमनस्य की बदली
निगल रही हैं विवेक के सूर्य को..!!

सुनो! जब दिन प्रतिदिन घटित होतीं
वीभत्स त्रासदियाँ मिटा देंगी मानवता को
जब पृथ्वी परिवर्तित हो जाएगी असंख्य
चेतनाशून्य शरीरों की भीड़ में…!!

जब अपने चरम पर होगी पाशविकता
और अंतिम साँसे ले रहा होगा प्रेम…
जब जीने से अधिक सुखकर लगेगा
मृत्यु का आलिंगन…!!

तब विनाश के उन क्षणों में भी तुम्हारी
उँगलियों का मेरी उँगलियों में उलझना,
पर्याप्त होगा मुझमें जीने की उत्कण्ठ
अभिलाषा जगाये रखने के लिए..!!

©अनु उर्मिल ‘अनुवाद’
(23/01/2021)

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