अवनी हूँ मैं अंबर है तू ,
डूबू जो मैं संबल है तू ।
ये मन मेरा मन्दिर है जो
प्यारे प्रभु की मूरत है वो।
भटकू मैं क्यों इधर से उधर
मन में ही तो रहता है वो।
अकेली कहाँ क्यूँ डर मुझे
हरपल संग में रहता है वो।
अधूरी रहे क्यू ख्वाहिश मेरी
कहने से पहले पूर्ण करता है वो ।