इस तरह क्यों भेद का
तुम भाव रखते हो, बताओ,
मैं तुम्हारी ही तरह
इन्सान हूँ इंसान समझो।
मुफलिसी है श्राप मुझ पर
बस यही है एक खामी,
अन्यथा सब कुछ है तुम सा
एक सा पीते हैं पानी।
जाति मानव जाति है
धर्म मानव धर्म है
एक सा आना व जाना
फिर कहाँ पर फर्क है।
यह विषमता का जहर अब
फेंक दो इन्सान तुम
सब बराबर हैं, करो मत
भेदगत अपमान तुम।