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कचरे में छिपी ज़िन्दगी की चाबियाँ

बन्द कर अपने जज़्बातों के सभी दरवाजों को,

लगाये लब्जों पर हम खांमोशी के बड़े तालों को।

 

देखो किस तरह ढूंढने में लगे हैं हम कचरे में छिपी अपनी जिंदगी की चाबियों को॥

 

यूँ तो तमाम रिश्तों के धागों में बंधे हुए हैं हम भी मगर,

नज़र आते हैं दो रोटी की खातिर खोजते हम न जाने कितने ही कचरे के ढेर मकानों को॥

 

जहाँ तलक भी नजर जाती है फैली गन्दगी ही नज़र आती है,

फिर भी ढूढ़ते हैं कूड़ा कवाड़ा हम रखकर सब्र अपने जिस्म ऐ ज़ुबानों को॥

 

राही (अंजाना)

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