कुछ तो बेबसी रही होगी,
जो राहों पर निकल पड़ा मज़दूर।
ना साधन है ना रोटी है,,
निज घर जाने को मजबूर।
कुछ सपने लेकर आया था शहर,
वो सपने हो गए चकनाचूर ।
कड़ी धूप है, ना कोई छाया,
कब से इसने कुछ नहीं खाया।
भूखा कब तक मरे यहां,
घर भी तो है कोसों दूर।
फ़िर भी बच्चों को ले निकल पड़ा,
बेबस है कितना मज़दूर ।
किसी ने अपना बालक खोया,
किसी का उजड़ा है सिन्दूर।
करुण – कथा सुन,मेहनतकश की व्यथा सुन,
पलकें भीगेंगी ज़रूर 😥