गुम

गुम

थांडी हवा और बैंड आंखें खोई हुई थी मैं या फिर मदहोश हीं कह लो
खुली खिड़की से मैं बहार की दुनिया को निहार रही थी,
ये सोच रही थी कि कैसे बहार की दुनिया इतनी तेज चल रही है, हमसे बहुत आगे निकल चुके है, पर मैं नहीं निकल पाई,
शायद मैं बाकियों जितनी जीतनी तेज नहीं हूं या फिर शायद मुझे तेज जाना है था मुझे यहीं रहना था।
मैं कहीं जाना है न ही चाहती थीं,
आखिरकार क्या फायदा तेज चलने से जब तुम खुद को दर्द दो, क्या फायदा बाकियों जैसा बनने का जब तुम खुद को खुद की नज़र से देख ना पाओ क्या फायदा उस कमियाबी का जब तुम खुश ना रह पाओ,
कमियाब होने का मतलब ये तो नहीं कि तुम इस भीड़ में अपना अस्तित्व भूल जाओ।।
इस चकाचौड़ दुनिया की यह रीत सी है अब तो यहां सब खो जाते है , पता नही खोकर वो कैसे जी पाते हैं उनकी अपनी इक्षाए उनका क्या??
क्यों हम वो करे जो सब कर रहे है हम वो भी कर सकते हैं जो हम चाहते हैं और खुश रह सकते हैं।।
शायद मैं ज्यादा हीं सोच रही शायद लोग इस उलझन में हीं खुश है ।
तभी मेरा सर खिड़की से टकराया और पास के बर्थ पे बैठी मेरी दादी मां ने कहां
“कहां खोई हो बेटा तब से देख रही हूं तुम्हे”
मैंने कहा,”कुछ नही दादी बस यूं हीं को गई थी ”

अदिति

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