Site icon Saavan

ठेके का रिक्शा खींच दिन भर

आ बैठ जा
मैं गीत लिख दूँ आज तुझ पर
है उपेक्षित तू सदा से
ठण्ड की रातों में
सोता है खुली ठंडी सड़क पर।
ठेके का रिक्शा खींच दिन भर
जो कमाता है उसे
भेजता है गांव में परिवार को,
रोज खपता है भले
रविवार हो शनिवार हो।
हांफ जाता है चढ़ाई पर
जोर टांगों से लगाकर
शक्ति को पूरी खपाकर
मंजिलें देता पथिक को,
सब यही कहते हैं कम कर
कोई नहीं देता अधिक तो।
जो मिला कम खा बचा
कर्तव्य अपने है निभाता
पत्नी-बच्चे, वृद्ध वालिद
पेट भरकर है खिलाता।
इस तरह तू इस शहर में
खींच रिक्शा है कमाता
जिन्दगी को जिन्दगी भर
खींच कर अपनी खपाता ।

Exit mobile version